Jharkhand Sthapna Diwas 2025: लगुलान की रणभूमि जहाँ शहादत की मिट्टी अब भी इतिहास की गूँज समेटे हुए है
खूंटी (झारखंड), फाउंडेशन डे 2025
झारखंड का ऐतिहासिक स्थल डोंबारी बुरू, जो खूंटी जिले के मुरहू प्रखंड में स्थित है, सिर्फ एक पहाड़ी नहीं बल्कि आदिवासी अस्मिता, संघर्ष और बलिदान की अनमोल धरोहर है। 9 जनवरी 1899 को यहां अंग्रेजों द्वारा किए गए नरसंहार ने इसे झारखंड का ‘जलियांवाला बाग’ बना दिया। आज भी यह स्थान उलगुलान आंदोलन की उस भयावह कहानी का साक्षी है, जिसने प्रदेश की आत्मा में स्वतंत्रता की लौ जगाई।
उलगुलान आंदोलन पर अंग्रेजों का कहर
धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चल रहा उलगुलान आंदोलन चरम पर था। इसी दौरान बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों ने डोंबारी बुरू पर एक महत्वपूर्ण सभा की थी, जिसका उद्देश्य अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ निर्णायक रणनीति बनाना था।
ब्रिटिश शासन को यह एकता असहनीय लगी और जैसे ही इस सभा की सूचना मिली, अंग्रेजी सेना ने पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी गई। ऐतिहासिक स्रोतों के मुताबिक, 400 से अधिक आदिवासी मौके पर ही शहीद हो गए, जिसमें महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग शामिल थे।
ब्रिटिश सिपाहियों ने शवों को दफनाने की भी अनुमति नहीं दी और उन्हें खुले में ही छोड़ दिया। यह घटना पूरे क्षेत्र को दहला गई और उलगुलान आंदोलन को और भी प्रज्वलित कर गई।
सिर्फ छह शहीदों की पहचान आज तक संभव
दुर्भाग्य से सैकड़ों शहीदों में से इतिहास केवल छह लोगों की पहचान ही जुटा पाया है—
हाथीराम मुंडा
हाड़ी मुंडा
सिंगराय मुंडा
बकन मुंडा की पत्नी
मझिया मुंडा की पत्नी
डुंगडुंग मुंडा की पत्नी
बाकी सभी शहीदों के नाम इतिहास की धुंध में खो गए, लेकिन उनकी गुमनाम वीरता आज भी डोंबारी बुरू की मिट्टी में दर्ज है।
हर वर्ष लगता है ‘शहादत मेला’
9 जनवरी को हर साल यहां विशाल मेला आयोजित किया जाता है। हजारों श्रद्धालु डोंबारी बुरू पहुंचकर मिट्टी को माथे से लगाते हैं और शहीदों को नमन करते हैं।
इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य, लोकगीत, अखरा प्रतियोगिता और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है, जहां आदिवासी समुदाय अपने वाद्ययंत्रों की थाप के साथ उलगुलान की गूंज को जिंदा कर देता है।
110 फीट ऊँचा स्मारक स्तंभ बना गर्व का प्रतीक
डोंबारी बुरू की चोटी पर स्थापित 110 फीट ऊंचा स्मारक स्तंभ शहीदों की अमर गाथा का प्रतीक है। इस स्तंभ पर बिरसा मुंडा और उनके अनुयायियों की स्मृति में उकेरे गए शिलालेख आज भी नई पीढ़ी को यह संदेश देते हैं कि स्वतंत्रता संघर्ष और बलिदान की नींव पर खड़ी होती है।
बदल रही है डोंबारी बुरू की तस्वीर
सरकार और प्रशासन ने इस स्थल के संवर्द्धन पर विशेष ध्यान दिया है।
पहाड़ी पर नई चौड़ी सीढ़ियाँ
विश्राम स्थल और छायादार पेड़
स्मारक परिसर का सौंदर्यीकरण
सड़क मरम्मत और पेवर ब्लॉक
बिरसा मुंडा की प्रतिमा का कायाकल्प
इन प्रयासों से अब श्रद्धालु और पर्यटक आसानी से यहां पहुंच सकते हैं।
सांस्कृतिक चेतना का केंद्र बनता डोंबारी बुरू
आज यह स्थल सिर्फ शहीदों का स्मारक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का प्रमुख केंद्र बन चुका है। मेले के दौरान ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और बंगाल से भी बड़ी संख्या में लोग यहां आते हैं।
राज्य पर्यटन विभाग ने डोंबारी बुरू को हेरिटेज टूरिज्म सर्किट में शामिल करने का प्रस्ताव भी रखा है, जिसके तहत पर्यटक केंद्र, पार्किंग और सूचना कियोस्क जैसी सुविधाएं विकसित होंगी।
झारखंड की अस्मिता का प्रतीक
अंग्रेजों की गोलियों से छलनी यह भूमि आज भी उलगुलान की गूंज समेटे हुए है। यही वह जगह है जहां से बिरसा मुंडा ने शासन के खिलाफ जनयुद्ध का बिगुल फूंका था। डोंबारी बुरू न सिर्फ इतिहास का हिस्सा है, बल्कि आदिवासी स्वाभिमान का जीवित प्रतीक बन चुका है।
धरती आबा की विरासत आज भी जीवित
बिरसा मुंडा का संदेश—‘अबुआ दिसुम, अबुआ राज’ (अपना देश, अपना राज)—आज भी यहां की हवाओं में गूंजता है।
डोंबारी बुरू की मिट्टी बताती है कि गोलियाँ शरीर को मार सकती हैं, विचारों को नहीं। यही कारण है कि यह स्थल झारखंड की आत्मा और पहचान दोनों का अटूट हिस्सा बन गया है।
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